थोड़ा थोड़ा
जहर सन रहा
रोज निवालों में।
मौसम रूठे ऋतु चक्रों के
पाले बदल गए
शीत मनाकर
बादल-बिजली
सावन निगल गए
फर्क नहीं कुछ, मिलता
असली में नक्कालों में।
छूट रहा है खुली हवा का
धीरे धीरे साथ
आग लगा कर
आसमान में,
दुनिया सेंके हाथ
उलझ रही है मकड़ी खुद ही
अपने जालों में।
यूँ ही अड़ियल रही हवा तो
बदलेगा भूगोल
बर्फ गलेगी
रेशा रेशा
करके डावाँडोल
गले गले तक होगा पानी
घर चौपालों में।
फाँस रहे हैं जो धरती की
हरी भरी मुस्कान
वे बेरहम मुखौटे
अब तो
घूमे सीना तान
मिलते हैं बदरंग भेड़िये
ऊनी खालों में।